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त्वा꣡म꣢ग्ने꣣ पु꣡ष्क꣢रा꣣द꣡ध्यथ꣢꣯र्वा꣣ नि꣡र꣢मन्थत । मू꣣र्ध्नो꣡ विश्व꣢꣯स्य वा꣣घ꣡तः꣢ ॥९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत । मूर्ध्नो विश्वस्य वाघतः ॥९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वा꣢म् । अ꣣ग्ने । पु꣡ष्क꣢꣯रात् । अ꣡धि꣢꣯ । अ꣡थ꣢꣯र्वा । निः । अ꣣मन्थत । मूर्ध्नः꣢ । वि꣡श्व꣢꣯स्य । वा꣣घ꣡तः꣢ ॥९॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 9 | (कौथोम) 1 » 1 » 1 » 9 | (रानायाणीय) 1 » 1 » 9


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में योगीजन परमात्मा को मस्तिष्क-पुण्डरीक में प्रकट करते हैं, यह विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) तेजःस्वरूप परमात्मन् ! (अथर्वा) चलायमान न होनेवाला स्थितप्रज्ञ योगी (त्वाम्) आपको (विश्वस्य) सकल ज्ञानों के (वाहकात्) वाहक (पुष्करात् मूर्ध्नः अधि) कमलाकार मस्तिष्क में (निरमन्थत) मथकर प्रकट करता है। परमात्मा रूप अग्नि को मथकर प्रकट करने की प्रक्रिया बताते हुए श्वेताश्वतर उपनिषद् में कहा है—अपने आत्मा को निचली अरणी बनाकर और ओंकार को उपरली अरणी बनाकर ध्यान-रूप मन्थन के अभ्यास से छिपे हुए परमात्मा-रूप अग्नि को प्रकट करे (श्वेता० २।१४)। कमल के पत्ते (पुष्करपर्ण) के ऊपर अग्नि उत्पन्न हुआ था, यह कथा इसी मन्त्र के आधार पर रच ली गयी है ॥९॥

भावार्थभाषाः -

जैसे अरणियों के मन्थन से यज्ञवेदि-रूप कमलपत्र के ऊपर यज्ञाग्नि उत्पन्न की जाती है, वैसे ही स्थितप्रज्ञ योगियों को ध्यान-रूप मन्थन से कमलाकार मस्तिष्क में परमात्मा-रूप अग्नि को प्रकट करना चाहिए ॥९॥१ विवरणकार माधव ने इस मन्त्र के भाष्य में यह इतिहास लिखा है—सर्वत्र घोर अन्धकार छाया हुआ था, तब मातरिश्वा वायु को आकाश में सूक्ष्म अग्नि दिखाई दी। उसने और अथर्वा ऋषि ने उस अग्नि को मथकर प्रकट किया। उसका किया हुआ मन्त्रार्थ साररूप में इस प्रकार है— (अग्ने) हे अग्नि ! (अथर्वा) अथर्वा ऋषि ने (त्वाम्) तुझे (मूर्ध्नः) प्रधानभूत (पुष्करात्) अन्तरिक्ष से (विश्वस्य वाघतः) सब ऋत्विज् यजमानों के लिए (निरमन्थत) अतिशरूप से मथकर निकाला। वस्तुतः विवरणकार- प्रदत्त कथानक सृष्ट्युत्पत्ति-प्रक्रिया में अग्नि के जन्म का इतिहास समझना चाहिए। आकाश के बाद वायु और वायु के बाद अग्नि, यह उत्पत्ति का क्रम है। उत्पन्न हो जाने के बाद आकाश में सूक्ष्म रूप से अग्नि भी विद्यमान था, उसे अथर्वा परमेश्वर ने पूर्वोत्पन्न वायु के साहचर्य से मथकर प्रकट किया, यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए। भरतस्वामी के भाष्य का यह आशय है—अथर्वा ने (मूर्ध्नः) धारक, (विश्वस्य वाघतः) सबके निर्वाहक (पुष्करात्) अन्तरिक्ष से या कमलपत्र से, अग्नि को मथकर निकाला। सायण का अर्थ है—(अग्ने) हे अग्नि ! (अथर्वा) अथर्वा नाम के ऋषि ने (मूर्ध्नः) मूर्धा के समान धारक (विश्वस्य) सब जगत् के (वाघतः) वाहक (पुष्करात् अधि) पुष्करपर्ण अर्थात् कमलपत्र के ऊपर (त्वाम्) तुझे (निरमन्थत) अरणियों में से उत्पन्न किया। यहाँ भी पुष्करपर्ण सचमुच का कमलपत्र नहीं है, किन्तु यज्ञवेदि का आकाश है और अथर्वा है स्थिर चित्त से यज्ञ करनेवाला यजमान, जो यज्ञकुण्ड में अरणियों से अग्नि उत्पन्न करता है, यह तात्पर्य जानना चाहिए। उवट ने य० ११।३२ के भाष्य में जल ही पुष्कर है, प्राण अथर्वा है श० ४।२।२।२ यह शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण देकर मन्त्रार्थ किया है—तुझे हे अग्नि, (पुष्करात्) जल में से (अथर्वा) सतत गतिमान् प्राण ने (निरमन्थत) मथकर पैदा किया। यही अर्थ महीधर को भी अभिप्रेत है। यहाँ प्राण से प्राणवान् परमेश्वर या विद्वान् मनुष्य, जल से बादल में स्थित जल और अग्नि से विद्युत् जानने चाहिए। अथवा शरीरस्थ प्राण खाये-पिये हुए रसों से जीवनाग्नि को उत्पन्न करता है, यह तात्पर्य समझना चाहिए। महीधर ने दूसरा वैकल्पिक अर्थ पुष्करपर्ण (कमलपत्र) के ऊपर अग्नि को मथने परक ही किया है। भाष्यकारों ने तात्पर्य प्रकाशित किये बिना ही कथाएँ लिख दी हैं, जो भ्रम की उत्पत्ति का कारण बनी हैं। वस्तुतः अथर्वा नामक किसी ऋषि का इतिहास इस मन्त्र में नहीं है, क्योंकि वेदमन्त्र ईश्वरप्रोक्त हैं तथा सृष्टि के आदि में प्रादूर्भूत हुए थे और पश्चाद्वर्ती ऋषि आदिकों के कार्यकलाप का पूर्ववर्ती वेद में वर्णन नहीं हो सकता ॥९॥

टिप्पणी: १. ऋषि दयानन्द ने ऋग्वेदभाष्य और यजुर्वेदभाष्य में इस मन्त्र की व्याख्या सूर्य आदि से बिजली ग्रहण करने के पक्ष में की है। यथा, ६।१६।१३ के भाष्य में भावार्थ है—हे विद्वान् जनो ! जैसे पदार्थविद्या के जाननेवाले जन सूर्य आदि के समीप से बिजली को ग्रहण करके कार्यों को सिद्ध करते हैं, वैसे ही आप लोग भी सिद्ध करो। य० १५।२२ के भाष्य का भावार्थ है— मनुष्यों को चाहिए कि विद्वानों के समान आकाश तथा पृथिवी के सकाश से बिजुली का ग्रहण कर आश्चर्य-रूप कर्मों को सिद्ध करें।
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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

योगिनः परमात्मानं मूर्धपुण्डरीके प्रकटयन्तीत्युच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) तेजःस्वरूप परमात्मन् ! (अथर्वा) न थर्वति चलति यः सः, स्थितप्रज्ञो योगीत्यर्थः। थर्वतिश्चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः निरु० ११।१९। (त्वाम्) भवन्तम् (विश्वस्य) सकलस्य ज्ञानस्य (वाघतः) वाहकात् वाहके इति यावत्। वह प्रापणे इति णिजन्ताच्छतरि हस्य घत्वं छान्दसम्। (पुष्करात् मूर्ध्नः अधि) पुण्डरीकतुल्ये मस्तिष्के। पुष्करम् अन्तरिक्षं, पोषति भूतानि... इदमपि इतरत् पुष्करमेतस्मादेव, पुष्करं वपुष्कारं वपुष्करं वा। निरु० ५।१३। अधियोगे पञ्चमी। (निरमन्थत) मथित्वा जनयति। उक्तं च श्वेताश्वतरे—“स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्। ध्याननिर्मथनाभ्यासाद् देवं पश्येन्निगूढवत् ॥” श्वेता० २।१४। इति। ‘पुष्करपर्णाश्रयेण हि अग्निरुत्पन्नः’ इत्यस्याः कथाया अयमेव मन्त्रो मूलम्। यथोच्यते—त्वामग्ने पुष्करादधीत्याह पुष्करपर्णे ह्येनमुपश्रितमन्वविन्दत्।’ तै० सं० ५।१।४।४। इति ॥९॥२

भावार्थभाषाः -

यथा खल्वरणिमन्थनेन यज्ञवेदिपुण्डरीके यज्ञाग्निरुत्पाद्यते, तथैव स्थिरप्रज्ञैर्योगिभिर्ध्यानरूपेण मन्थनेन मूर्धपुण्डरीके परमात्माग्निः प्रकटीकरणीयः ॥९॥ विवरणकारस्त्वाह—“अत्रेतिहासमाचक्षते। सर्वमिदमन्धं तम आसीत्। अथ मातरिश्वा वायुः आकाशे सूक्ष्ममग्निमपश्यत्। स तममथ्नात् अथर्वा च ऋषिरिति”। एष च तन्मन्त्रभाष्यस्य सारः—हे अग्ने, अथर्वा ऋषिः त्वां मूर्ध्नः प्रधानभूतात्, पुष्करात् अन्तरिक्षात्, विश्वस्य सर्वस्य, वाघतः ऋत्विजो यजमानस्य अर्थाय निरमन्थत नितरां मथितवानिति। वस्तुतस्त्वयं सृष्ट्युत्पत्तिप्रक्रियायाम् अग्नेर्जन्मन इतिहासः। आकाशाद् वायुः, वायोरग्निरित्युत्पत्तिक्रमः। आकाशे सूक्ष्मरूपेणाग्निर्विद्यमान आसीत्। तम् अथर्वा परमेश्वरः पूर्वोत्पन्नो वायुश्च तस्मान्निरमन्थत प्रकटीकृतवानित्यभिप्रायो ग्राह्यः। “मूर्ध्नो धारकात् विश्वस्य वाघतः निर्वाहकात्, पुष्कराद् अन्तरिक्षात्, पुष्करपर्णादित्यपरे” इति भरतस्वामिभाष्याशयः। हे अग्ने, अथर्वा एतत्संज्ञ ऋषिः, मूर्ध्नः मूर्धवद् धारकात्, विश्वस्य सर्वस्य जगतः, वाघतः वाहकात्, पुष्कराद् अधि पुष्करे पुष्करपर्णे त्वां निरमन्थत अरण्योः सकाशादजनयदिति सायणीयोऽभिप्रायः। अत्रापि पुष्करपर्णं न कमलपत्रं, किन्तु यज्ञवेद्या आकाशः, अथर्वा च स्थिरचित्तत्वेन यज्ञं कुर्वाणो यजमानः, असौ अरण्योः सकाशादग्निं जनयतीति तात्पर्यं बोध्यम्। उवटस्तु य० ११।३२ भाष्ये आपो वै पुष्करं प्राणोऽथर्वा। श० ६।४।२।२। इति शातपथीं श्रुतिं प्रमाणीकृत्य त्वां हे अग्ने, पुष्कराद् उदकात् अधि सकाशात् अथर्वा अतनवान् प्राणो निरमन्थत निर्जनितवान् इति व्याचष्टे। तदेव महीधरस्याभिप्रेतम्। तत्र प्राणः प्राणवान् परमेश्वरो विद्वान् वा, उदकानि पर्जन्यस्थानि, अग्निश्च विद्युदिति विज्ञेयम्। यद्वा, शरीरस्थः प्राणो भुक्तपीतेभ्यो रसेभ्यो जीवनाग्निं जनयतीति तात्पर्यं बोध्यम्। महीधरेण द्वितीयो वैकल्पिकोऽर्थः पुष्करपर्णेऽग्निमन्थनपर एव कृतः। भाष्यकारैस्तात्पर्यप्रकाशनं विनैव कथा लिखिता याः पाठकानां भ्रमोत्पत्तिनिमित्तं संजाताः। वस्तुतस्तु अथर्वनाम्नः कस्यचिद् ऋषेरितिहासोऽस्मिन् मन्त्रे नास्ति, वेदमन्त्राणामीश्वरप्रोक्तत्वात् सृष्ट्यादौ प्रादुर्भूतत्वात् पश्चाद्वर्तिनाम् ऋष्यादीनाम् कार्यकलापस्य पूर्ववर्तिनि वेदेऽसंभवत्वाच्च ॥९॥

टिप्पणी: १. ऋ० ६।१६।१३। य० १५।२२ (ऋषिः परमेष्ठी)। २. दयानन्दर्षिणा ऋग्वेदभाष्ये यजुर्वेदभाष्ये चायं मन्त्रः सूर्यादेः सकाशाद् विद्युद्ग्रहणपरो व्याख्यातः। यथा—ऋ० ६।१६।१३ मन्त्रभाष्ये भावार्थः—“हे विद्वांसो, यथा पदार्थविद्याविदो जनाः सूर्यादेः सकाशाद् विद्युतं गृहीत्वा कार्याणि साध्नुवन्ति तथैव यूयमपि साध्नुत” इति। य० १५।२२ मन्त्रभाष्ये च भावार्थः—“मनुष्यैर्विद्वदनुकरणेनाकाशात् पृथिव्याश्च विद्युतं संगृह्याश्चर्य्याणि कर्माणि साधनीयानि।” इति।